Wednesday, October 26, 2016

माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:

अथर्ववेद के मन्त्र १२.१.१२ “ माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या: ” को यद्यपि हम भारतीयों ने भारत-माता, राष्ट्रवाद, पृथ्वी के साथ हम भारतीयों का मातृवत सम्बन्ध की वैदिक-काल से स्थापना के साथ समय समय पर उच्चारण किया है किन्तु बहुधा इस मन्त्र-अंश को ही पूर्ण मन्त्र मान इस मन्त्र के शेषांश की अवहेलना की है ! पूरा मन्त्र है- “यत् ते मधयं पृथिवि यच्च नभ्यं, यास्ते ऊर्जस्तन्व: संबभूवु:, तासु नो धे”यभि न: पवस्व, माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:, पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु”, अर्थात “हे पृथ्वी, यह जो तुम्हारा मध्यभाग है और जो उभरा हुआ ऊधर्वभाग है, ये जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हैं, हे पृथ्वी मां, तुम मुझे अपने उसी शरीर में संजो लो और दुलारो कि मैं तो तुम्हारे पुत्र के जैसा हूं, तुम मेरी मां हो और पर्जन्य का हम पर पिता के जैसा साया बना रहे” वैदिक ऋषि ने पृथ्वी से जिस प्रकार का रक्त-सम्बन्ध स्थापित किया है, वह इतना विलक्षण और आकर्षक है कि दैहिक माता-पिता से किसी भी प्रकार कम नहीं ! तनिक विचार करें कि यदि इस प्रकार के रक्त-सम्बन्ध का भाव हमारे अन्तर्मन में स्थापित हो तो क्या हम किसी भी प्रकार निरादर कर सकते हैं भूमि का ? क्या प्रदूषित कर सकते हैं पृथ्वी को ?, क्या भूखण्डों पर अपना स्वामित्व मान दम्भ करेंगे ?, क्या भारतभू पर किसी विदेशी-विधर्मी का पद-दलन स्वीकार करेंगे ? कोई कितना भी दुष्ट अथवा कुटिल हो अपनी माता के प्रति व्यभिचार अथवा उसका अपमान सहन नहीं करेगा, आवश्यकता केवल-मात्र वेद-मन्त्रों को अंगीकार करने की है ! केवल यही एक मन्त्र नहीं वरन अथर्ववेद का भूमि_सूक्त ऐसे अनेक मन्त्रों से विभूषित है जो वसुन्धरा के सौन्दर्य के प्रति मानव-मात्र के उदात्त भावों का श्रेष्ठतम प्रकटीकरण है ! १२.१.१६ “विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा, हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी, वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निम् इन्द्र ऋषभा द्रविंण नो दधातु” अर्थात “समग्र विश्व का भरण-पोषण करने वाली यह पृथ्वी वसु (धन) की खानें अपने में धारण किए है, इसकी छाती (वक्ष) सोने की है, सारा जगत उसमें समाया है, सारे संसार की भूख यह मिटाती है, हमारी कामना है कि यह हमें समृद्धि में नहलाए रखे” माँ वसुन्धरा के प्रति यह कृतज्ञता व कामना अथर्ववेद के ऋषि की कालजयी दृष्टि को इंगित करती है ! १२.१.०९ “यस्यामाप: परिचरा समानी: अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति, सा नो भूमिर्भूरिधारा पयोदुहा अथो उक्षतु वर्चसा” ऋषि इस विचार से अभिभूत है कि कैसे इस भूमि पर दिन-रात जल की प्रभूत धाराएं बिना किसी प्रमाद के लगातार बहती रह कर उसे वर्चस्व से सम्पन्न कर रही हैं, सूक्त में ऋषि ने सचमुच भूमि के साथ मां का नाता जोड़ लिया है और उससे वैसे ही दूध की कामना कर रहा है जैसे कोई शिशु अपनी मां से दूध की कामना करता है- “सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्रय मे पय:” (१२.१.१०), अर्थात यह भूमि मेरे लिए वैसे ही दूध (पय:) की धारा प्रवाहित करे, जैसे मां अपने पुत्र के लिए करती है ! पर वह भूमि मां है कैसी ? ऋषि उसकी दिव्यता से अभिभूत है और कल्पना करता है, उसी मन्त्र “यामश्विनार्मिमाताम् विष्णुर्यस्यां विचक्रमे, इन्द्रो यां चक्र आत्मनेनमित्राम शचीपति:” (१२.१.१०). में कि यह वह पृथ्वी है, जिस पर अश्विनी कुमारों ने अपना रथ चलाया था, जिसे विष्णु ने अपने कदमों से लांघा था, जिसे इन्द्र ने अपने लिए शत्रुविहीन कर दिया था, वह मेरी मां मेरे लिए अपने शिशु की तरह दूध प्रवाहित करे। कवि चाहता तो पृथ्वी को अन्न देने वाली कह कर रुक जाता, पर उसने उसमें मां के दर्शन किए, उसमें दिव्यता के दर्शन किए और उसे अपने और पूर्वजों के इतिहास से भी जोड़ दिया। मन्त्र संख्या १२.१.३८ में “यजन्ते यस्यामृत्विज: सोमामिन्द्रियाय पार्तवे” ऋषि ने पृथ्वी पर होने वाले यज्ञों की बात कही है तो इस बात को भी स्पष्टता से कहा है कि इन यज्ञों में विद्वान लोग ऋचाओं, यजुषों व सोमों से हवि डालते हैं और यही वह पृथ्वी है, जहां भूतकाल में ऋषियों ने अनेक प्रकार का काव्य लिखा है- ‘यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो मा उदानृचु:’ (१२.१.३९) पृथ्वी को देख कर ऋषि इतना मुखर हो उठा कि वह सब कुछ लिख देना चाहता है, जो भी उसे पृथ्वी पर नजर आता है या वह उसके बारे में सोचता है। यथा इसी पृथ्वी पर समुद्र हैं, नदियां हैं और जल “यस्या समुद्रं उत सिंधुरापो:” (१२.१.३) इसी पृथ्वी पर पत्थरों और हिम वाले पहाड़ हैं और जंगल फैले हैं “गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोरण्यं ते” (१२.१.११), इसी धरती पर मनुष्य और पशु विचरण करते हैं “(मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदश्चतुष्पद:” (१२.१.१५), यही भूमि समस्त औषधियों की जननी है “विश्वस्वं मातरमोषधीनां” (१२.१.१७), जिसकी गंध को गंधर्व और अप्सराएं सूंघते नहीं अघाते “यं गंधर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन या सुरभि कृपु:” (१२.१.२३), इसी पर सभी वृक्ष और वनस्पतियां अपनी जड़े टिकाए हैं “यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति” (१२.१.२७) और इसी पर हैं शिलाएं, पत्थर और मिट्टी “शिला भूमिरश्मा पांसु: सा भूमि: संध्रता धृता:” (१२.१.२६) किन्तु इसी भूमि को, भूमि मां को अपने लाभ के लिए खोदना पड़ता है तो कारुणिक ऋषि प्रार्थना करता है कि वह तो करना ही पड़ेगा, पर हे भूमि, उससे तुम्हारे मर्मस्थलों और हृदय को पीड़ा न पहुंचे- “यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रां तदपि रोहतु मा ते मर्म विमृग्वरि” (१२.१.३५) पृथ्वी का यह विस्तृत एवम् भावनात्मक वर्णन वैदिक ऋषियों की वैज्ञानिक दृष्टि के साथ उनकी संवेदनशीलता तथा भूमि के साथ एकात्म-सम्बन्ध का प्रतीक है ! अर्वाचीन विज्ञान तद्यपि भूतल ही नहीं भूगर्भ विश्लेषण के नए आयाम स्थापित कर रहा है किन्तु उसका स्वार्थी संवेदनहीन ज्ञान व प्रकृति के दोहन के प्रति उसका अभियान आज उसे SAVE EARTH जैसी चिन्ता तक ले आया है ! क्या भारतीय मनीषा प्रकृति- पर्यावरण संरक्षण में उपयोगी भूमिका का वहन नहीं कर सकती ? भारतीय शास्त्रीय सम्पदा के आलोक में यदि वैश्विक समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास हो, तो निश्चित ही परिणाम मंगलकारी होंगे क्योंकि भूमि-सूक्त के अन्तिम मन्त्र (१२.१.६३) “भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्”- “हे भूमि माँ मुझे अपने समस्त कल्याणभाव के बन्धन में रखना”, स्वयं में अन्यत्र वर्णित विचार के समान सदैव विश्व-मांगल्य के भाव से ओत-प्रोत है ! धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो डॉ. जय प्रकाश गुप्त अम्बाला छावनी (हरियाणा) ! सम्पर्क ९३१५५१०४२५, ८२९५५७०१९० https://www.facebook.com/RashtravaadiChikitsak https://twitter.com/9315510425